शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

परशुराम जयन्ती पर नगर राजेसुल्तानपुर मे कार्यक्रम

'परशु' प्रतीक है पराक्रम का। 'राम' पर्याय है सत्य सनातन का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। शास्त्रोक्त मान्यता तो यह है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, अतः उनमें आपादमस्तक विष्णु ही प्रतिबिंबित होते हैं, परंतु मेरी मौलिक और विनम्र व्याख्या यह है कि 'परशु' मेंसमाहित हैं और 'राम' में भगवान विष्णु। इसलिए परशुराम अवतार भले ही विष्णु के हों, किंतु व्यवहार में समन्वित स्वरूप शिव और विष्णु का है। इसलिए मेरे मत में परशुराम दरअसल 'शिवहरि' हैं। 

पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पाँचवें पुत्र का नाम 'राम' ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्ना करके उनके दिव्य अस्त्र 'परशु' (फरसा या कुठार) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। 'परशु' प्राप्त किया गया शिव से। शिव संहार के देवता हैं। परशु संहारक है, क्योंकि परशु 'शस्त्र' है। राम प्रतीक हैं विष्णु के। 

विष्णु पोषण के देवता हैं अर्थात्‌ राम यानी पोषण/रक्षण का शास्त्र। शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति। शास्त्र से प्रतिबिंबित होती है शांति। शस्त्र की शक्ति यानी संहार। शास्त्र की शांति अर्थात्‌ संस्कार। मेरे मत में परशुराम दरअसल 'परशु' के रूप में शस्त्र और 'राम' के रूप में शास्त्र का प्रतीक हैं। एक वाक्य में कहूँ तो परशुराम शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का नाम है, संतुलन जिसका पैगाम है। 

अक्षय तृतीया को जन्मे हैं, इसलिए परशुराम की शस्त्रशक्ति भी अक्षय है और शास्त्र संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का। पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का उन्होंने वध किया। यह पढ़कर, सुनकर हम अचकचा जाते हैं, अनमने हो जाते हैं, लेकिन इसके मूल में छिपे रहस्य को/सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते। 

ND
यह तो स्वाभाविक बात है कि कोई भी पुत्र अपने पिता के आदेश पर अपनी माता का वध नहीं करेगा। फिर परशुराम ने ऐसा क्यों किया? इस प्रश्न का उत्तर हमें परशुराम के 'परशु' में नहीं परशुराम के 'राम' में मिलता है। आलेख के आरंभ में ही 'राम' की व्याख्या करते हुए कहा जा चुका है कि 'राम' पर्याय है सत्य सनातन का। सत्य का अर्थ है सदा नैतिक। सत्य का अभिप्राय है दिव्यता। सत्य का आशय है सतत्‌ सात्विक सत्ता। 

परशुराम दरअसल 'राम' के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। यह परशुराम का तेज, ओज और शौर्य ही था कि कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का ध्वजारोहण किया। परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है। 

जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी माँ का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।

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